सावित्री बाई फूले का जीवन परिचय | Savitri bai phule biography in hindi

सावित्री बाई फूले जीवनी - {जन्म, विवाह, शिक्षा, समाज की कुरीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष, मृत्यु, birth date and place, marriage, family, education, social services, death}


देश की पहली महिला शिक्षक सावित्री बाई फूले, सावित्री बाई ज्योतिराव फूले बायोग्राफी


देश की पहली शिक्षक, समाज सेविका और कवयित्री सावित्री बाई ज्योतिराव फूले द्वारा किया अद्वितीय व उल्लेखनीय योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। इन्होंने 19वीं शताब्दी के दौरान महिला शिक्षा और सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन्होंने मराठी में लेखन और समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों का विरोध कर महत्वपूर्ण सुधार कार्य किए थे। इन्हें मराठी काव्य का अग्रदूत भी कहा जाता है। सावित्री बाई फुले जयंती (savitri bai phule jayanti) पर हमारी ओर से शत शत नमन।

कहा जाता है कि महान लोगों का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही धर्म और जाति होती है और वह है मानवता। मानव के प्रति अच्छे विचार, उनके अधिकारों के लिए अपना सर्वस्व जीवन न्योछावर करना ही इनका कर्तव्य होता है। जहां आजकल लोग धर्म, जाति, मज़हब के नाम पर आपस में उलझे रहते हैं। महज़ एक संकुचित सोच के तले इतने दबे रहते हैं कि इससे बाहर निकलकर कभी सोच ही नहीं पाते हैं। सचमुच समाज के लिए यह एक विचारणीय प्रश्नचिन्ह है।

सावित्री बाई फूले ने ऐसे दौर में ज्ञान का अलख जगाया जिस दौर में लड़कियों का पढ़ना लिखना तो दूर, घर से बाहर निकलना भी दुश्वार था। उन्हें अपने पति ज्योतिराव फूले के साथ पुणे (महाराष्ट्र) में पहला स्कूल स्थापित करने के लिए श्रेय दिया जाता है। इस अंक में हम सावित्री बाई फूले बायोग्राफी हिंदी में (savitri bai phule biography hindi mein) पढ़ रहे हैं।

इन्होंने बालविवाह के प्रति शिक्षित व उन्मूलन करने, सती प्रथा के ख़िलाफ़ प्रचार करने, विधवा पुनर्विवाह के लिए वकालत करने के लिए ख़ूब मेहनत की। महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार आंदोलन का एक प्रमुख व्यक्तित्व और बी. आर. अम्बेडकर और अन्ना भाऊ साठे के साथ दलित मंगल जाति का प्रतीक माना जाता है। इन्होंने अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ एक अभियान चलाया। और जाति व लिंग पर आधारित भेदभाव को मिटाने में अपनी एक सक्रिय और अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सावित्री बाई फुले का जन्म 

सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को नायगांव (जो कि वर्तमान में सतारा ज़िले में है।) में एक किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल और माता का नाम लक्ष्मी था। ये परिवार की सबसे बड़ी बेटी थी।

सावित्री बाई फूले का विवाह 

उन दिनों लड़कियों का जल्दी ही विवाह कर देने की प्रथा प्रचलित थी। इसलिए इनका विवाह भी जल्दी ही हो गया। इनका विवाह उस समय के प्रचलित रीति रिवाजों के साथ सन 1840 में, महज़ 9 साल की उम्र में ही 12 वर्ष के ज्योतिराव फूले के साथ हो गया था। 

ज्योतिबा फूले एक विचारक, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और जाति विरोधी एक सामाजिक सुधारक थे। ज्योतिराव फूले को महाराष्ट्र के सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रमुख आंदोलनकारियों में विशेष रूप से गिना जाता है।

सावित्री बाई फूले की शिक्षा दीक्षा 

सावित्री बाई की शिक्षा उनकी शादी के बाद ही शुरू हुई। उनके पति ही थे जिन्होंने सावित्री बाई को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने एक सामान्य स्कूल से कक्षा तीसरी और चौथी की परीक्षा पास की। इसके बाद इन्होंने अहमदनगर के मिसपराग इंस्टीट्यूशन में आगे का प्रशिक्षण प्राप्त किया।

ज्योतिराव फूले अपने सभी सामाजिक प्रयासों में अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहते थे। पुणे में सन 1848 में, लड़कियों के लिए देश का पहला स्वदेशी स्कूल ज्योतिराव और सावित्रीबाई फूले के द्वारा शुरू किया गया था। लेकिन इन दोनों के द्वारा उठाए गए इस क़दम के लिए परिवार और समाज द्वारा इन दोनों का ही बहिष्कार कर दिया गया था।

भला हो इनके एक दोस्त उस्मान शेख़ और उनकी बहन फ़ातिमा शेख़ का जिन्होंने इन दोनों को आश्रय दिया था। केवल आश्रय ही नहीं अपितु उन्होंने अपने परिसर में इन दोनों को अपना स्कूल शुरू करने के लिए स्थान भी दिया था। इस प्रकार सावित्री बाई स्कूल की पहली शिक्षिका बनी। बाद में ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने मिलकर मंगल और महार जाति के बच्चों के लिए स्कूल स्थापित किए।

16 नवंबर सन 1852 में ब्रिटिश सरकार ने फूले परिवार को शिक्षा के क्षेत्र में उनके इस अभूतपूर्व योगदान के लिए सम्मानित किया। साथ ही सावित्री बाई को सर्वश्रेष्ठ शिक्षिका का नाम दिया गया। सावित्री बाई ने महिलाओं को उनके अधिकार, गरिमा और अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूक करने हेतु महिला सेवा मंडल की शुरुआत भी की।

सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष

उन दिनों विधवा बन जानी वाली महिलाओं के बाल मुंडवा दिए जाते थे। इन्होंने विधवाओं के बाल मुंडवाए जाने की इस प्रथा के ख़िलाफ़ मुंबई और पुणे में नायिकी हड़ताल का आयोजन करने में भी सफलता हासिल की थी। 

फूले दंपत्ति द्वारा उन दिनों चलाए जा रहे तीनों स्कूलों को सन 1858 तक बंद कर दिया गया था। दरअसल 1857 के बाद भारतीय विद्रोहों के बाद, स्कूल प्रबंधन समिति से ज्योतिराव ने स्तीफ़ा दे दिया था। इन दोनों पर समाज द्वारा, पीड़ित और शोषित समुदाय के बच्चों को शिक्षित करने का आरोप लगाया गया था। लेकिन 1 वर्ष बाद सावित्री बाई फूले के द्वारा 18 स्कूल खोले गए। जहां सावित्री बाई ने विभिन्न जातियों के बच्चों को पढ़ाया।

सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ ने मिलकर महिलाओं को पढ़ाने का काम शुरू किया। साथ ही अन्य जातियों के कमज़ोर लोगों को भी पढ़ाने का काम शुरू किया। हालाकि इनके इस प्रयास के लिए स्थानीय लोगों द्वारा अनेक धमकियां भी मिलती रहीं। सावित्री बाई फूले को स्थानीय लोगों द्वारा तरह तरह से परेशान भी किया गया। उनके ऊपर गोबर, कीचड़ और पत्थर भी फेंके जाने लगे। वो नहीं चाहते थे कि कमज़ोर व शोषित वर्ग के लोग शिक्षित हों।

लोगों द्वारा सावित्री बाई को हतोत्साहित करने के ये प्रयास अंततः विफल रहे। सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ बाद में सगोना बाई से जुड़ गए। जो कि इस शिक्षा के आंदोलन में अग्रणी बनीं। इस बीच फूले दंपत्ति द्वारा कृषि विद तथा मज़दूरों के लिए एक रात्रि कालीन विद्यालय भी शुरू किया गया। ताकि वे दिन में काम करने के बाद रात्रि में शिक्षा प्राप्त कर सकें। उन्होंने नियमित अंतराल में अभिभावकों और शिक्षकों के बीच बैठकें भी आयोजित की। ताकि शिक्षा के क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाई जा सके और अभिभावक अपने बच्चों को नियमित रूप से स्कूल भेजने में दिलचस्पी दिखा सकें।

सावित्री बाई उन युवा लड़कियों के लिए प्रेरणा बनी हुई थीं जिनको उन्होंने पढ़ाया था। सावित्री बाई फूले ने शिक्षा के साथ साथ लेखन और पेंटिंग जैसी गतिविधियों के लिए भी लगातार प्रोत्साहित किया। इस कारण सावित्री बाई के कुछ शिष्यों के द्वारा लिखे गए निबंधों ने तो आगे चलकर समाज के लिए नई सोच और जागरूकता के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना शुरू कर दिया। सचमुच यह लेखन साहित्य के क्षेत्र में एक नया आयाम ही था। जो समाज को एक नई दिशा देने में मददगार साबित हुआ।

वर्ष 1867 में ज्योतिराव और सावित्री बाई ने एक देखभाल केंद्र भी शुरू किया। जो कि भारत का पहला ऐसा केंद्र था जहां बाल हत्याओं से बचने, गर्भवती महिलाएं, बलात्कार से पीड़ित महिलाएं सुरक्षित रह सकती थीं। यह अत्यंत ही प्रशंसनीय प्रयास था जहां विधवाओं की हत्या के साथ साथ शिशुओं की हत्या को भी कम करने का प्रयास किया जा रहा था।

ज्योतिराव और सावित्री बाई ने सन 1874 में काशी बाई नामक एक ब्राह्मण विधवा से एक बच्चा गोद लेकर  समाज को एक मज़बूत संदेश दिया। यही दत्तक पुत्र बड़ा होकर डॉ. बना। सावित्री बाई ने बाल विवाह और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई के ख़िलाफ़ अपना मोर्चा खोला। इसके अन्तर्गत उन्होंने बाल विधवाओं को शिक्षित व सशक्त बनाकर उन्हें मुख्य धारा में लाने का भरसक प्रयास किया।

सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने छुआछूत और जातिप्रथा जैसी कुरीतियों के उन्मूलन के लिए भी कार्य किया। उन्होंने निचली जातियों के अधिकारों के लिए अपना अनूठा योगदान दिया। सावित्री बाई और ज्योतिराव ने उस समय अपने घर में अछूत लोगों के पानी पीने के लिए एक कुआं बनाया जिन दिनों अछूतों को अपने कुओं से पानी पीने का अधिकार तक नहीं दिया जाता था।

सावित्री बाई फूले की मृत्यु कैसे और कब हुई?

सावित्री बाई के दत्तक पुत्र ने भी डॉ. के रूप में लोगों की सेवा करना शुरू कर दिया। सन् 1897 में जब प्लेग नामक महामारी ने महाराष्ट्र के इलाकों को बूरी तरह अपने चपेट में लेना प्रारंभ किया तब सावित्रीबाई फूले और उनके दत्तक पुत्र ने संक्रमित लोगों का इलाज करने के लिए पुणे के बाहरी इलाके में एक क्लीनिक खोला। सावित्रीबाई, पीड़ितों को उस क्लीनिक तक लेकर जाती जहां उनका बेटा उन संक्रमित पीडितों का इलाज करता था। इस तरह रोगियों की सेवा करते करते सावित्री बाई फुले भी इस ख़तरनाक बीमारी की चपेट में आ गई। 10 मार्च 1897 को सावित्री बाई की इस बीमारी के कारण मृत्यु हो गई।

सावित्रीबाई फूले का पूरा जीवन समाज सेवा में बीता। इन्होंने ग़लत रीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। महिलाओं के हक़ के लिए लड़ाई लड़ी। और आख़िर में लोगों की सेवा करते करते अंतिम सांस ली।

समाज की सदियों पुरानी बुराइयों पर अंकुश लगाने और महिलाओं को शिक्षित कर सशक्त बनाने, उन्हें समाज में सम्मान दिलाने, उनके अधिकारो के लिए इनके द्वारा किए गए अनूठे कार्यों के लिए सम्पूर्ण भारतवर्ष सदैव इनका ऋणी रहेगा।

1983 में पुणे सिटी कार्पोरेशन द्वारा उनके सम्मान में उनका स्मारक बनाया गया था। इंडिया पोस्ट ने 10 मार्च 1998 को उनके सम्मान में एक डाक टिकिट जारी किया था। 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर उनके ही नाम पर सावित्रीबाई पुणे विश्वविद्यालय कर दिया गया था। यूनिवर्सल सर्च इंजन गूगल (google) ने 3 जनवरी 2017 को गूगल डूडल के साथ उनकी 189वीं जयंती मनाई थी। आजकल महाराष्ट्र महिला समाज सुधारकों को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए सावित्री बाई पुरस्कार दिया जाता है।

उम्मीद है इस लेख में सावित्री बाई फूले की कहानी (savitri bai phule ki kahani) पढ़कर आपको इस महान समाज सेविका, ख़ासकर इनका महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा के प्रति जागरूकता के लिए किया गया संघर्ष से भरा योगदान ज़रूर शिक्षाप्रद लगा होगा। 

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