डिप्रेशन का शिकार बन रहे स्कूली बच्चे | जानिए क्या हो सकते हैं डिप्रेशन से बचने के उपाय?

क्या पढ़ाई का टेंशन बना रहा है स्कूली बच्चों को डिप्रेशन का शिकार?

दोस्तों आज का दौर पिछले कुछ दशकों की तुलना में  काफ़ी बदल गया है। ख़ासकर किशोरावस्था के दौर से गुज़र रहे बच्चों के लिए। क्योंकि आज का वातावरण और उनपर थोपा जा रहा पढ़ाई का बोझ उन्हें अनायास ही तनाव का शिकार बना रहा है।



ज़रा सोचकर देखिए, अगर आप नौकरी पेशा हैं या आपका कोई बिज़नेस है। आप कितना टाइम दे पाते हैं अपने बच्चों को? कहीं-कहीं तो माता-पिता दोनों ही नौकरी करते हैं। क्या वे अपने बच्चों को टाइम दे पाते हैं। सिर्फ़ पैसा देकर उनकी ज़रूरतें पूरी नहीं कि जा सकतीं। उनकी कुछ ज़रूरतें ऐसी भी हैं जिन्हें पैसों से नहीं ख़रीदा जा सकता। और वो ज़रूरतें हैं ख़ुद आप। उन्हें आपका साथ चाहिए। जिनके साथ बैठकर वे आपसे अपनी समस्याएँ साझा कर सकें।

आपको जानकर हैरानी होगी कि महज़ 11 साल की उम्र में स्कूली बच्चे मानसिक तनाव के शिकार हो रहे हैं। बच्चों में डिप्रेशन के बढ़ते ये हालात, बेहद चिंताजनक हैं। 

बच्चों का बालपन बचा रहे और उन्हें तनाव रहित शिक्षा और जिंदगी दी जा सके इसके लिए तत्काल बड़े क़दम उठाने की ज़रूरत है। इस विषय पर संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट के दौरान भी ये बातें कही गईं।


एक ताज़ा अध्ययन के दौरान भारतीय शोधकर्ताओं ने यह पाया है कि स्कूल में पढ़ाई करने वाले ज़्यादातर 13 से 18 साल के किशोर-किशोरियां अवसाद(depression) के शिकार बन रहे हैं। स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, चंडीगढ़ और स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (पीजीआईएमईआर) के द्वारा किये गए शोध से ये तथ्य उभरकर सामने आए हैं।

शोधकर्ताओं का अध्ययन बताता है कि लगभग 40 प्रतिशत किशोर किसी न किसी रूप में तनाव (stress) से ग्रसित हैं। इनमें लगभग 7.6 प्रतिशत किशोर किसी गहरे अवसाद से पीड़ित हैं तो वहीं लगभग 32.5 प्रतिशत किशोर डिप्रेशन के किसी अन्य विकार से ग्रसित देखे गए हैं। क़रीब 30 प्रतिशत किशोर तनाव (स्ट्रेस) के न्यूनतम स्तर और 15.5 प्रतिशत किशोर तनाव के मध्यम स्तर से प्रभावित हैं। 3.7 प्रतिशत किशोरों में अवसाद का यह स्तर गंभीर स्थिति तक पहुँच चुका है, तो वहीं 1.1 प्रतिशत किशोर ऐसे हैं जो कि अत्यधिक गंभीर अवसाद से ग्रस्त पाए गए हैं।

11 से 17 साल के स्कूली किशोर किशोरियां गंभीर तनाव के शिकार

मानव-संसाधन मंत्रालय की ओर से पेश एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 11 से 17 वर्ष की उम्र के स्कूली बच्चे उच्च तनाव के शिकार देखे जाते हैं। इसके अलावा कुछ बच्चे मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रसित होते हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका तंत्र संस्थान (NIMHANS) बेंगलुरु की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 12 राज्यों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वे में 34 हजार 802 वयस्क और 1 हजार 191 किशोरों से बात की गई थी। 13 से 17 वर्ष के लगभग 8 फ़ीसदी किशोरों में पढ़ाई के तनाव की वजह से मानसिक बीमारी पायी गई थी।


शहरी बच्चों में ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में तनाव के दोगुने मामले

शहरी और ग्रामीण इलाकों का अध्ययन करने पर एक बात हैरान करने वाली पता चली। वह यह थी कि ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों में यह बीमारी 6.9 प्रतिशत ही थी, जबकि शहरी क्षेत्रों में लगभग दोगुना यानि कि 13.5 फ़ीसदी बच्चों में यह तनाव देखने मिला। जानकारों के अनुसार, इसका सीधा संबंध शहरी जीवन और अंक आधारित प्रतियोगिता वाली स्कूली शिक्षा प्रणाली से है। 


इसका जानकारी एनसीआरबी के आंकड़ों से भी मिलती है। हम आपको बता दें कि 2011 से 2018 के बीच लगभग 70 हजार स्टूडेंट्स ख़राब रिज़ल्ट आने के कारण ख़ुदकुशी (आत्महत्या) कर चुके हैं। इनमें लगभग 50 फ़ीसदी घटनाएं स्कूल स्तर पर हुईं। एक ख़बर के अनुसार, कुछ सालों पहले तेलंगाना में दसवीं के नतीजे आने के बाद 50 से अधिक स्टूडेंट्स द्वारा ख़ुदकुशी करने की खबरें आईं थीं।

अवसाद (तनाव) का मूल्यांकन करने के लिए कुछ विशेष कारको जैसे माता-पिता की शिक्षा एवं व्यवसाय, घर तथा स्कूल में किशोरों के प्रति रवैया, सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि, यौन-व्यवहार और इंटरनेट का प्रयोग आदि को शामिल किया जाए। तभी इन स्कूली बच्चों की मानसिकता और इन बच्चों में डिप्रेशन को समझा जा सकता है।

आज के दौर की बात की जाए तो किशोरों में अवसाद के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इस समस्या को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है क्योंकि किशोरावस्था बचपन से वयस्कता के बीच के एक संक्रमण काल की अवधि होती है। इस दौरान किशोरों में कई हार्मोनल और शारीरिक परिवर्तन होते हैं। ऐसे में अवसाद का शिकार होना उन बच्चों के करियर निर्माण और भविष्य के लिहाज से घातक साबित हो सकता है।

किशोरों में अवसाद के इन विभिन्न स्तरों के लिए कई तरह के पहलुओं को जिम्मेदार पाया गया है। इनमें सुदूर ग्रामीण इलाक़ों में अध्ययन, पारिवारिक सदस्यों द्वारा शारीरिक शोषण, पिता द्वारा शराब का सेवन एवं धूम्रपान, शिक्षकों द्वारा प्रोत्साहन एवं सहयोगी व्यवहार की कमी, सांस्कृतिक गतिविधियों में सीमित भागीदारी, पर्याप्त अध्ययन की कमी, अध्ययन व शैक्षिक प्रदर्शन से असंतुष्टि और गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड की बढ़ती पश्चिमी प्रभाव जैसे कारकों को प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार पाया गया है।

शोधकर्ताओं के अनुसार किशोरों में अवसाद के ज़्यादातर कारक परिवर्तनीय हैं। घर एवं स्कूल के वातावरण को अनुकूल बनाकर छात्रों में अवसाद को कम करने में मदद मिल सकती है। किशोरों-किशोरियों में अवसाद की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अवसाद से संबंधित कारकों को समझने के लिए और भी अधिक विस्तृत अनुसंधान की आवश्यकता है जिससे कि देश की शिक्षा नीति में इन सभी कारणों पर भी विचार किया जा सके।


अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि किशोरों में बढ़ रहे अवसाद और इससे जुड़े कारकों के संदर्भ में समझ विकसित करने के लिहाज से यह अध्ययन उपयोगी हो सकता है। इसकी तर्ज पर देश के अन्य इलाक़ो में भी स्कूलों में अध्ययन के गिरते स्तर और किशोरों में बढ़ रहे अवसाद की समस्या को समझने में मदद मिल सकती है। आइये हम किशोर-किशोरियों में डिप्रेशन के शुरुआती लक्षण को जानते हैं।


बच्चों में डिप्रेशन के लक्षण (Bachchon me depression ke lakshan)




शुरुआती लक्षणों की बात करें तो बच्चों में डिप्रेशन के निम्नलिखित लक्षण नज़र आ सकते है -

• चिड़चिड़ापन आना।
• छोटी-छोटी बातों पर अत्यधिक रोना।
• थकान महसूस होना।
• अक़्सर पेट दर्द होना।
• अक़्सर सिरदर्द होना।
• कभी ज़्यादा तो कभी कम नींद लेना।
• दिमाग़ में कुछ न कुछ सोचते रहना।
• मूड स्थिर न रहना, बार-बार बदलना।
• हमेशा निराश या उदास रहना।
• बिना किसी कारण बच्चे को गुस्सा आना।
• समस्या होने पर ख़ुद को दोषी मानना।
• खाने की आदत में परिवर्तन आना।
• अपने दैनिक कार्यों को न कर पाना।
• दिमाग़ को केंद्रित न कर पाना।
• अपना सम्पूर्ण आत्मविश्वास खो देना।
• दूसरों के साथ मिलना-जुलना पसंद न करना।


डिप्रेशन का इलाज क्या है? | डिप्रेशन से कैसे बचें इन हिंदी | Depression se bachne ke upay




मानव-संसाधन मंत्रालय का कहना है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद 2018-19 से उपयुक्त एवं प्रभावी कदम उठाने की पहल की जा चुकी है और स्कूल में काउंसलिंग की व्यवस्था के अलावा तनाव रहित माहौल बनाने की दिशा में कई क़दम भी उठाए जा रहे हैं। स्कूलों में तनाव रहित शिक्षा देने के लिए काउंसलिंग की व्यवस्था पेशेवर लोगों की ओर से दी ही जाएगी, साथ ही शिक्षकों को भी इस हेतु प्रशिक्षित किया जाएगा।

इस प्रक्रिया में अभिभावकों को भी शामिल करने की सलाह दी गई है। साथ ही सिलेबस में ज़िन्दगीं को प्रेरणा देने वाली कहानिययों को शामिल किया जाएगा जिसमें कठिन हालात में लड़ने की हिम्मत देने वाली कहानियां हों। स्कूली बच्चे अपने सिलेबस में ऐसी चीज़ें पढ़ें जिसमें उनके आसपास की दुनिया और उनके अपने जीवन के साथ जोड़ने में उनको सहायता मिल सकें। इसके लिए एनसीईआरटी (NCERT) को अलग से Advisory (अडवाइजरी) भी जारी कर दी गई है।

इसके अलावा बच्चों को डिप्रेशन से बचाने के उपाय और भी हो सकते हैं। जिन्हें अपने दैनिक जीवन में अपनाए जाने से अनेक सुधार देखे जा सकते हैं आइये इनमें से कुछ कारगर उपाय जानते हैं जो कि अत्यंत महत्वपूर्ण हैं -

1. स्वस्थ प्रतियोगिता करें -
स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ‘मंद गति से सीखने वाले’ या ‘प्रतिभाशाली बच्चे’ या ‘समस्याकारी बच्चे’ जैसे नाम न दें। इस तरह की कैटेगरी बनाने से और भी अधिक तनाव वाली स्थिति पैदा होती है। इसलिये स्वस्थ प्रतियोगिता करें, इस बात का ध्यान रखा जाये कि कोई भी बच्चा हीन भावना से ग्रसित न हो पाए। बल्कि बच्चे को हीन भावना से ग्रसित करने को अपराध माना जाएगा।

2. माता-पिता बच्चों से भावनात्मक जुड़ाव रखें -
कुछ मामलों में देखा जाता है कि माता-पिता तो होते हैं लेकिन बच्चों के साथ भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता। जिस कारण बच्चों में भावनात्मक लगाव के स्थान पर डर अथवा द्वेष की भावना होती है। अवसाद का मुख्य कारण समर्थन का अभाव होता है। बच्चों के साथ समय-समय पर बात करके उनका आत्मविश्वास बनाए रखें।


3. बच्चों को परिवार के बड़ों के बीच रखें -
यदि संभव हो तो एकल परिवार छोड़, अपनों के बीच रहें। पहले दादा-दादी साथ रहते थे तब वे बच्चों के सबसे अच्छे फ्रेंड बन जाया करते थे। तब बच्चों का अवसाद से ग्रस्त होना कम ही दिखाई पड़ता था।

4. बच्चों पर अत्यधिक अपेक्षाएँ न लादें - 
आजकल की प्रतियोगिता को देखकर माता-पिता बच्चों से ढेर सारी अपेक्षाएं पाल बैठते हैं। फलस्वरूप स्कूली बच्चे बचपन से ही क़िताबों और अपेक्षाओं के बोझ तले दबकर रह जाते हैं। इसलिए बच्चों के मामले में अत्यधिक महत्वाकांक्षी न बनें तो बेहतर होगा।

5. बच्चों की किसी से तुलना न करें -
कुछ मामलों में बच्चों के माता-पिता उनकी तुलना कुछ इस तरह करते हैं कि बच्चे स्वयं को ही धिक्कारने लगते हैं। किसी से मिलने-जुलने से उनको नफ़रत हो जाती है। बच्चे एकांत में रहने की आदत बना लेते हैं। इसलिए बच्चे की तुलना, किसी और के बच्चे का नाम लेकर कतई न करें। भगवान ने सभी को ख़ास बनाया है। अपने बच्चे की प्रतिभा को पहचानने का प्रयास करें। हो सकता है, उसमें वो ख़ासियत हो, जो पड़ोस वाले बच्चे भी नहीं।

6. असफलता का सामना करना सिखाएं -
बहुत से माता-पिता बच्चों से सिर्फ़ अपेक्षाएँ रखते हैं। मगर जब बच्चे असफल होते हैं तब उनका भावनात्मक साथ छोड़ देते हैं। ऐसे समय में बच्चों को आपके भावनात्मक साथ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। भावनात्मक साथ न मिलने से बच्चे अक़्सर ग़लत क़दम भी उठा लेते हैं। 

7. बच्चों की शिकायतों तो ज़रूर सुनें -
कई मामलों में कभी-कभी स्कूली बच्चों को प्रताड़ित भी किया जाता है। जब बच्चा परिवार में जाकर शिक़ायत करता है। तब परिवार में उसकी बातों को ध्यान नहीं दिया जाता। यही सोचकर कि स्कूल में थोड़ी बहुत डांट-डपट तो होती ही रहती है। लेकिन ऐसा सोचना सही नहीं है। बच्चों की बातों को ध्यान से सुनिए, कहीं उसके साथ कोई ज़्यादती तो नहीं हो रही है। वरना ऐसे में बच्चा ख़ुद को असहाय समझने लगेगा। और वो अवसाद से ग्रसित हो जाएगा।

8. बच्चों की भावनाओं को समझें - 
कुछ बच्चे ऐसे होते हैं कि उन्हें शिक्षक सबके सामने डांट दे तो अवसाद में चले जाते हैं। ऐसे बच्चे स्वयं ही हीनभावना से ग्रस्त होकर अवसाद में चले जाते हैं। ऐसे बच्चों के लिए ज़रूरी है कि शिक्षक व अभिभावक, बच्चों की भावना का ख़याल रखे।

9. बच्चों की पसंद-नापसंद का ख़याल रखें -
बच्चों का हृदय कोमल होता है। किसी बात का असर उनको पल भर में ही अंदर तक तोड़ देता है। इसलिए बच्चों की पसंद का सामान या भोजन ज़रूर बनाया करें। ताकि उनको खुशी मिल सके। उनकी मनपसंद डिश बनाकर उन्हें प्यार से कोई भी बात सिखायी या मनायी जा सकती है। बच्चे ख़ुश हों तो वे माता-पिता की हर बात सहज ही मानने को तैयार हो जाते हैं।

10. शारीरिक गतिविधियाँ जारी रखें -
बच्चों को रोज़ाना खेलने या टहलने जैसी शारीरिक गतिविधियाँ कराते रहें। शोधों से पता चला है कि जो किशोर रोज़ाना 60 मिनट तक खेलते हैं। वो शारीरिक व मानसिक रूप से सशक्त होते हैं।

11. बच्चों की ज़रूरतों को समझें -
माता-पिता को बच्चों की ज़रूरतों को समझना चाहिए। उनके साथ प्यार से पेश आएं। बच्चों को स्वतंत्रता भी दें ताकि वो सही ग़लत को समझने की कोशिश कर सकें। उनकी गतिविधियों पर ध्यान ज़रूर देते रहें। क्योंकि यह माता-पिता का कर्तव्य भी है।

12. बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखें -
बच्चों के साथ जितना हो सके, दोस्ताना व्यवहार रखें। ताकि आपका बच्चा अधिकतर समस्याओं को आपके साथ साझा करने की हिम्मत कर सके। क्योंकि यदि आपका बच्चा किसी बाहरी व्यक्ति से समस्या का निराकरण पूछे तो ज़रूरी नहीं कि बाहरी व्यक्ति उसे अच्छी सलाह दे। हो सकता है बाहरी व्यक्ति आपके बच्चे को भटकावे की ओर ले जाये।

13. बच्चों को ओवर प्रोटेक्शन न दें -
कई माता-पिता अपने बच्चों को बाहर निकलने नही देते, दूसरे बच्चों के साथ मिलने-जुलने, खेलने-कूदने नहीं देते। उन्हें घर में ही रहकर सिर्फ़ पढ़ाई करने के लिए दबाव देते रहते हैं। बच्चों की ख़ातिर सुरक्षात्मक रवैया अपनाना ग़लत नहीं है। लेकिन अत्यधिक सुरक्षात्मक रवैया अपनाने से आपके बच्चे बाहर की दुनिया से अछूते रह जाएंगे। उन्हें खेलने कूदने दें। मिलने जुलने दें। इससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास भी होगा। और बाहरी दुनिया से तालमेल बनाना भी सीख पाएंगे। हाँ आप उनपर नज़र ज़रूर रख सकते है। इसमें कोई बुराई नहीं।

14. बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम ज़रूर बिताएँ -
बच्चे स्कूल के कोर्स और किताबों से बोर होकर कुछ वक़्त आपके साथ बिताना चाहते हैं। लेकिन अगर आप उन्हें इग्नोर करते हुए अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हैं। तो बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे में मनोरंजन के लिए बच्चे सोशल मीडिया का सहारा भी लेने लगते हैं। 

सोशल मीडिया ज़िन्दगीं का हिस्सा ज़रूर है लेकिन ज़िन्दगीं की हर कमी पूरी करने में सोशल मीडिया सक्षम नहीं है। बच्चों को ज़रूरत से ज़्यादा सोशल मीडिया की आदत न डालें। बिना मोबाइल के रोज़ाना अपने बच्चों के साथ अनिवार्य रूप से कुछ वक़्त बिताने का प्रयास ज़रूर करें। ये सबसे अहम उपाय है बच्चों के अकेलेपन और अवसाद भरे जीवन से बचाये रखने के लिए।

15. किसी मनोचिकित्सक की सलाह लें -
यदि आपका बच्चा कई दिनों से डिप्रेशन से ग्रस्त है तो उचित समय पर उपचार करना ही बेहतर होगा। सही समय पर पहचान कर उपचार करवाने से बच्चों को डिप्रेशन से बाहर लाया जा सकता है। इसके लिए मनोचिकित्सक व कुछ दवाओं के सेवन की सलाह दी जाती है। इलाज करने के पहले बच्चे के डिप्रेशन की गंभीरता को समझा जाता है और उचित उपचार किया जाता है। यदि किसी बच्चों में डिप्रेशन कम है तो थेरेपी का प्रयोग कर ठीक किया जा सकता है। बच्चों का डिप्रेशन कम नहीं होता है तो दवा भी दी जा सकती है। 

उपरोक्त सभी कारणों से यह पता चलता है कि बच्चों को माता-पिता का प्यार, भावनात्मक लगाव, विश्वास व समर्थन मिलना अत्यंत आवश्यक है। आजकल स्कूली प्रतियोगिता का दौर है। ज़रूरत से ज़्यादा अपेक्षाएँ और पूर्ण न होने पर उतनी ही ज़्यादा हताशा होती है। बच्चों की रुचि किस चीज़ में है? यह देखे बिना उन पर अपनी चॉइस choice थोप देने की ग़लती, उनकी शुरुआती ज़िन्दगीं की दिशा ही बदल देती है।

इसलिए अब से ये बात ध्यान रखें कि बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखते हुए उनका विश्वास जीतें। उनसे भावनात्मक रूप से जुड़े रहे। उनके आसपास या स्कूली ज़िन्दगीं के बारे में क्या कुछ घट रहा है, उनके साथ बैठकर पता करें। हमेशा सजग रहें कि कहीं आपका बच्चा किसी तनाव या अवसाद से ग्रसित तो नहीं।

उम्मीद है, यह लेख "डिप्रेशन का शिकार बन रहे स्कूली बच्चे | डिप्रेशन से बचने के उपाय?" आपको ज़रूर पसंद आया होगा। इसी आशा के साथ कि इसे अपने दोस्तों को शेयर कर, उन्हें भी बच्चों को डिप्रेशन से बचाने के उपायों से रूबरू करवाने का प्रयास करेंगे। मिलते हैं किसी और interesting टॉपिक के साथ।
- By Alok


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