ज़रूरत से ज़्यादा बड़बोलापन कभी न करें, हो सकते हैं इसके नुक़सान | ज़रूरत से ज़्यादा बोलने के 10 दुष्परिणाम

दोस्तों नमस्कार, आज हम इस लेख में एक ऐसे दिलचस्प विषय पर चर्चा करने वाले हैं जिसे पढ़कर आप रोमांचित हो उठेंगे। क्या आप ज़्यादा बोलना पसंद करते हैं? यदि आपका जवाब ना है तो क्या आपने किसी ऐसे व्यक्ति को नोटिस किया है जो ज़रूरत से ज़्यादा बातें करता है। अब आप सोच रहे होंगे कि ये कैसा सवाल है!

zyada bolna hanikarak


दरअसल बातचीत करना या बोलना एक कला है। आप जितना बोलेंगे उतना ही ज़्यादा प्रभाव दूसरों पर छोड़ेंगे। मगर क्या सिर्फ़ बोलते ही रहना प्रभावशील हो सकता है? तो जवाब मिलेगा कि बिल्कुल नहीं। जी हां ज़रूरत से ज़्यादा बोलने के दुष्परिणाम ( zarurat se zyada bolne ke dushparinam) भोगने पड़ सकते हैं?

वर्षा का जल बहुत लाभदायक होता है लेकिन यही वर्षा यदि ज़रूरत से ज़्यादा हो जाए तो बाढ़ भी आ जाती है। चारों ओर जन धन की हानि होती है वो अलग। सीधे शब्दों में कहा जाये तो अति का परिणाम हमेशा ही बुरा होता है।

बोलना तो हर किसी को आता है। लेकिन कब, कहां, कितना और कैसे बोलना है? ये बहुत कम लोगों को आता है। कभी कभी हम ऐसे लोगों के बीच बैठे होते हैं जहां कम बोलने वाले लोग हों। तब हम सोचते हैं कि कोई बोल नहीं रहा है, तो चलो हम ही बोल लेते हैं। फ़िर इतना बोल जाते हैं कि हमारी वजह से बाक़ी के लोग असहज हो जाते हैं।

ज़्यादा बोलने वाले लोग अक़्सर इसी ग़लतफहमी में रहते हैं कि ज़्यादा बोलने वाले लोग बुद्धिमान होते हैं। इसलिए वे हमेशा सामने वाले से ख़ुद को बड़ा और समझदार बताने की कोशिश में लगे रहते हैं। हर पल अपनी चतुराई दिखाने में लगे रहते हैं। जिस कारण ऐसे लोग लगातार बोल बोलकर अपना दिमाग़ ख़राब कर लेते हैं और ख़ुद भी तनाव में आ जाते हैं। इस समस्या की गंभीर इतनी हो सकती है कि व्यक्ति के दिमाग़ की नसें ख़राब होने के साथ साथ व्यक्ति पागल भी हो सकता है।

संस्कृत में भी एक कहावत है कि

अति सर्वत्र वर्ज्यते..!

अर्थात अती सभी जगह वर्ज (वर्जित) है। आदमी जितना जानता है उसे उतना ही बोलना चाहिए तो बेहतर है। यदि वह बेवजह आवश्यकता से अधिक बोलने की कोशिश करे तो निश्चित तौर पर उसके अधिकतम शब्द निरर्थक साबित होंगे।

चाणक्य ने भी कहा था कि "आप सबसे ज़्यादा कंजूसी बोलने में करो यानि कि गैर ज़रूरत मत बोलो।" यहां तक कि ग्रंथों में भी इस बात पर ज़ोर दिया गयाhv है कि इंसान को जितना हो सके, कम ही बोलना चाहिए।


ज़्यादा बोलने के नुक़सान (zyada bolne ke nuksan)

ज़रूरत से ज़्यादा बोलने के नुक़सान (zarurat se zyada bolne ke nuksan) निम्नलिखित हैं -

1. लोगों द्वारा इग्नोर किया जाना -
ज़रूरत से ज़्यादा बोलने वालों से लोग अक़्सर नाराज़ रहने लगते हैं। फ़िर विशेष मौकों पर उन्हें नज़रअंदाज़ (ignore) करने लगते हैं। 

2. इज्ज़त का कम हो जाना  -
ज्यादा बोलने से सामने वाला व्यक्ति आपके व्यक्तित्व का आसानी से आंकलन कर लेता है और ज़्यादा वैल्यू नहीं देता। उसको लगने लगता है कि आप झूठ बोल रहे हैं, फ़िर भले ही आप सही बोल रहें हों।

3. राज़ के खुलने का डर बने रहना -
आवश्यकता से अधिक बोलना एक तरह की कमी है। इससे बचना चाहिए। ज़रूरत से ज़्यादा बोलने वाले के साथ एक समस्या होती है कि उसकी योजना शुरू होने से पहले ही दूसरे लोगों को पता लग जाती है। सही मायने में कहा जाए तो अपनी इन्हीं कमज़ोरियों को वह जग ज़ाहिर करता रहता है। जो कि अच्छा गुण नहीं है।

4. लोगों की नज़र में मूर्ख समझा जाना -
अधिक बोलने वाले व्यक्ति, समाज में बकवास करने वाले लोगों की श्रेणी में गिने जाते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा टीका टिप्पणी करने अथवा यथार्थ से बढ़कर बातें करने की आदत के कारण लोग उनकी बातों को गंभीरता से लेना बंद कर देते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो ऐसे लोगों को मूर्ख समझने लगते हैं।

5. ऊर्जा का बेवजह ख़र्च होना -
ज़रूरत से ज़्यादा बोलने वाले लोगों के शरीर से अधिक उर्जा बाहर निकलती रहती है। जिस कारण उन्हें बोलने के दौरान थकान महसूस होती है। ऐसे में वे मानसिक और शारीरिक रूप से थका हुआ महसूस करने लगते हैं।

6. आपके शब्दों की क़ीमत न होना -
ज़रूरत से ज़्यादा बोलने वाले व्यक्ति की बातें उतनी प्रभावी नहीं होती। क्योंकि ऐसे व्यक्ति अपनी बातों के दौरान अनेक अनचाहे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कुछ बातें ऐसी कह देते हैं जो नहीं कहनी चाहिए थीं।

7. चिड़चिड़ापन और गुस्सा आना -
जब व्यक्ति अधिक बोलता है तब उसकी श्वसन क्रिया और भी अधिक गति से होने लगती है। जिस कारण दिमाग में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। ऑक्सीजन की कमी से तनाव होने लगता है जिससे चिड़चिड़ापन होने लगता है। फलस्वरूप बेवजह का क्रोध बढ़ने लगता है।

8. गंभीरता की कमी -
ज़्यादा बोलने वाले आदमी भावनाओं में विवश होकर जो बोलना नही चाहिए वह भी बोल देते हैं। परिणामस्वरूप उनकी बातों में गंभीरता की कमी देखी जाती है। उनकी यही आदत बाद में उन्हीं पर भारी पड़ती है।

9. रिश्तों में फीकापन आना -
अक़्सर ज़्यादा बोलने वाले लोग किसी बात पर ज़रूरत से ज़्यादा टिप्पणी देना पसंद करते हैं। ऐसे में वे किसी के पर्सनल मेटर पर ज़रूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप करते हुए टिप्पणियां दे बैठते हैं। परिणामस्वरूप उनकी इस आदत के कारण बेवजह आपसी रिश्तों में खटास उत्पन्न होने लगती
है।

10. किसी का विश्वासपात्र न बन पाना -
ज़्यादा बोलने वाले पर कोई सहज ही विश्वास करने में झिझक महसूस करता है। उसे लगता है कि ज़्यादा बोलने वाला व्यक्ति कभी भी अपनी धून में, कोई भी राज़ की बात दूसरे के सामने खोल सकता है। ख़ुद को सामने वाले से ज़्यादा होशियार बताने के चक्कर में, बातों की दिशा को कहीं भी मोड़ सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

किसी भी चीज़ की अती बुरी होती है। ज़्यादा बोलने से आप अपनी हर चीज़, दूसरे के अंदर ट्रांसफर करते हैं। जो बात आप को छुपानी चाहिए वह भी मुंह से निकल जाती है। परिणाम यह होता है कि सामने वाले को आपकी कमज़ोरी पता चल जाती है जिसकी ताक़ में वह बैठा ही था। ताकि वह आपकी इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठा सके।
लोगों को बता सके कि आपके अंदर क्या-क्या कमियां हैं।

कुछ जगह ऐसी होती हैं जहां आपको नापतोल कर ही बात करना चाहिए। जितना आपसे पूछा गया है सिर्फ़ उतने का ही जवाब देना चाहिए जैसे किसी नौकरी का इंटरव्यू हो, या आपके घर में कोई आपको देखने आए तब, या किसी से फ़ोन पर बात करते वक्त, या पड़ोसियों, रिश्तेदारों और आगंतुक लोगों से बातें करते टाइम, लिमिटेड बातें करनी चाहिए।

ज़रूरत से ज़्यादा बोलने वाले व्यक्ति (zarurat se zyada bolne vale vyakti) हमेशा बस अपनी ही सुनाने में लगे रहते हैं। वे सामने वाले की किसी बात पर ध्यान ही नहीं देते। चाहे फ़िर वो बात कितनी ही उपयोगी क्यूं न हो। ख़ुद को सबसे अच्छा साबित करने के guy चक्कर में ऐसे लोग अपने साथ वालों की महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण बातों को अनदेखा कर देते हैं। जो कि एक अच्छा गुण नहीं है।

समझदार वो नहीं, जो ज़्यादा बोलता है। बल्कि समझदार वो होता है जो सोच समझ कर बोले, संयम से बोले। बेवजह और ज़रूरत से ज़्यादा बोलने वाले को फेकू या गप्पू यानि कि गप्प मास्टर कहा जाता है।

(By Alok)

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